उन्होंने कट्टरवाद पर खुल कर लिखा, ना सिर्फ लिखा बल्कि वेबसीरीज द्वारा उसका जीवंत वर्णन भी किया.
2010 में उन्हें एमनेस्टी इंटरनेशनल की जेंडर यूनिट का प्रमुख चुना था. लेकिन अपने विचारों की अवहेलना होता देख सार्वजनिक रूप से एमनेस्टी की अलोचना की. जिसके कारण उन्हें पद से निलंबित कर दिया गया. इससे पहले उन्होंने तीखी बहस की एमनेस्टी के नेतृत्व को वैचारिक दिवालियापन से पीड़ित बताया. उनका मानना है कि शरणार्थी या मदद के नाम पर भी कट्टरवाद को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए. औरतनामा में आज हम बात कर रहे हैं, हमारे समय की बेहद महत्वपूर्ण एक्टिविस्ट, पत्रकार, फ़िल्म निर्देशक, लेखक 'गीता सहगल' की. गीता ने हर मोड़ पर धार्मिक कट्टरपंथियों द्वारा महिलाओं के उत्पीड़न का विरोध किया है. गीता सहगल भारतीय उपन्यासकार नयनतारा सहगल की बेटी और वियजलक्ष्मी पंडित की पोती हैं. इस प्रकार वे पंडित जवाहरलाल नेहरू की पोती भी हैं. यूं उनका जन्म हिंदू पृष्ठभूमि में हुआ लेकिन वे खुद को नास्तिक मानती हैं. उन्होंने मोअज्जम बेग को मानवअधिकार कार्यकर्ता का दर्जा देने के लिए सार्वजनिक रूप से एमेनेस्टी की आलोचना की थी. जिसके कारण निलंबन सहना पड़ा था. इस समय सलमान रुश्दी समेत ब्रिटिश संसद सदस्य डेनिस मैकशेन से लेकर कई लोग सहगल के समर्थन में थे. अधिकांश अख़बारों ने भी सहगल का साथ दिया और लिखा कैसे एमनेस्टी ने ग़लत पोस्टर बॉय चुना. 1979 में उन्होंने साउथहॉल ब्लैक सिस्टर्स की सहस्थापना की थी जो घरेलू हिंसा, नस्लवाद, कट्टरता, और लिंगवाद के ख़िलाफ़ लड़ने वाला संगठन था. 1989 में उन्होंने सभी धर्मों में कट्टरवाद के उदय को चुनौती देने के लिए वीमेन अंगेन्सट फंडामेंटलिज्म की सहस्थापना की थी. इस संस्था का विरोध ईसाई धर्म को समर्थन देने वाली ब्रिटिश सरकार ने भी किया था. उनकी किताब 'Refusing Holy Orders: Women and Fundamentalism in Britain', जिसे उन्होंने नीरायुवाल और डेविस के साथ मिलकर लिखा था, और इसे आलोचकों द्वारा काफी पसंद किया गया. उन्होंने करण जीत अहलुवालिया जिसने घरेलू हिंसा से तंग हो ब्रिटेन में अपने पति को ज़िंदा जला दिया था, उन पर चैनल फ़ोर के लिए फ़िल्म अनप्रोवोक्ड भी बनाई थी. ब्रिटेन जाने से पहले काफ़ी समय तक वे दिल्ली में रही थीं. दिल्ली में रहते हुए उन्होंने महिलाओं के लिए काफ़ी काम किया. बालात्कार और दहेज क़ानून के लिए लड़ाई लड़ी. वे उन चुनिंदा एक्टविस्टों में से एक हैं, जिन्होंने बिना किसी वाद की परवाह किए महिलाओं और मानवाधिकार के लिए अपनी आवाज़ बुलंद की.