बहुत पहले
यहां बीचोबीच गांव में
एक पेड़ हुआ करता था बरगद का
गांव का बुजुर्ग था वो
बूढ़ा बरगद
कोई मसला हो
कोई मुश्किल हो
सारे गांववाले
उसके साये में बैठ जाते थे
और हर बार ढूंढ़ लेते थे
कोई न कोई समाधान
कितना सहज, कितना आसान
लेकिन दौर बदला और ग़ज्जब बदला
घर, आंगन, खेत, कुआं सब बदला
हर मसले और हर मुश्किल का
समाधान देता था जो बरगद
वो गांववालों को समस्या लगने लगा
बूढ़े बरगद को काटा
गिराया और फिर
एक सीमेंट का पक्का चबूतरा बना दिया
पहले जहां बरगद के साये में मसले निपट जाते थे
अब वहां उस चबूतरे पर रोज़ नये मसले होते हैं.... यह कविता सुधीर आज़ाद के संग्रह 'किसी मनुष्य का पेड़ हो जाना' से ली गई है.
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आज की किताबः किसी मनुष्य का पेड़ हो जाना
लेखक: सुधीर आज़ाद
भाषा: हिंदी
विधा: कविता
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
पृष्ठ संख्या: 100
मूल्य: 200 रुपये
साहित्य तक पर 'बुक कैफे' के 'एक दिन एक किताब' में वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश पाण्डेय से सुनिए उपरोक्त पुस्तक की चर्चा.