कालाहांडी की गरीबी पर एक से एक उपमाएं गढ़ी गयी हैं. मुहावरे विकसित किये गए हैं. कविताएं लिखी गयीं हैं और सैकड़ों दस्तावेज लिखकर सरकारी अभिलेखागारों में सजाये भी गए हैं. इसके बावजूद, यहां की गरीबी-वंचना और दुर्भाग्य लोगों की नियति के सिवाय कुछ भी नहीं है.
यहां के विकास और लोगों की समृद्धि के लिए एक से एक फार्मूले अपनाये गए. लेकिन दुर्भाग्य की जमीन पर पानी अनाज और इंसान के बीच बने युगीन रिश्तों का दर्द राजकोष की होली के हुलास में बदला नहीं जा सका. विदेशी फण्ड का जल-जमाव यहां शुरू से बना रहा. फिर भी ग्रामीण स्तर पर जल-संग्रह का हर नुस्खा निष्फल ही रहा.
आखिर क्या है कालाहांडी? क्यों बनते हैं कालाहांडी? किनकी प्यास बुझाने का जरिया रहा है कालाहांडी? ये सारे सवाल आज भी हर कोई पूछ रहा है. कालाहांडी बनाये रखने की चाहत किसकी रही है? विकास के प्रयोगों में गलती कहां हुई और अब विकास की गुंजाइश कितनी बची है? ज़मीनी स्तर पर ग़रीबी की मार्मिक वास्तविकताओं तथा आदिवासियों की ज़िन्दगी में बढ़ती चुनौतियों के गहन अन्वेषण के लिए मशहूर पत्रकार-लेखक अमरेंद्र किशोर की कृति मजदूरों की मंडी कालाहांडी इन्हीं सवालों की पड़ताल है.
ओड़िया मानुस के मनोभावों और मिट्टी की मौलिकता को गहराई तक समेटे यह किताब विकास पत्रकारिता की एक बेजोड़ रचनाशीलता को सामने लाती है.
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आज की किताबः ‘मज़दूरों की मंडी कालाहांडी’
लेखक: अमरेंद्र किशोर
विधा: रिपोर्ताज
भाषा: हिंदी
प्रकाशक: बकस्मिथ प्रकाशन
पृष्ठ संख्या: 485
मूल्य: 999 रुपये
साहित्य तक पर 'बुक कैफे' के 'एक दिन एक किताब' में वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश पाण्डेय से सुनिए इस पुस्तक की चर्चा.