आज़ादी के 75 साल बाद - भारत के सामने कई कठोर प्रश्न हैं. सबसे ज़्यादा परेशान करने वाले सवाल हैं रोजगार और जीवनयापन के, लेकिन हमारे लोकतंत्र का सवाल अगर उससे ज्यादा नहीं तो उतना ही आवश्यक है. जब भारत को आजादी मिली और उसने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राह पर कदम बढ़ाया तो जनता ने अपने नेताओं और चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से एक ऐसा राष्ट्र बनाने का लक्ष्य रखा जो समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आदर्शों पर खड़ा हो. एक सघन आबादी वाले देश जहां पर भारी निरक्षरता और गरीबी हो, सिर चकरा देने की तादाद में धर्म, जाति, भाषा की विविधता और आंतरिक टकराव का इतिहास हो, वहां जब यह प्रयोग सफल लगने लगा तो इससे न सिर्फ दुनिया के तमाम सदस्यों को हैरानी हुई बल्कि कई देशों में आशाएं भी जगीं. लेकिन कुछ वर्षों से यह आदर्श आघात सह रहे हैं.
'1947 के बाद भारत: कुछ स्मरण, कुछ टिप्पणियाँ' किताब के लेखक राजमोहन गांधी ने उन प्रमुख मुद्दों पर विचार किया है जिसका सामना भारत को करना है. वे प्रश्न करते हैं कि क्या भारत का भविष्य एक उत्पीड़ित मन के प्रतिशोध भाव से संचालित होने जा रहा है जो कि हिंदू राष्ट्रवाद के समर्थकों पर हावी है? क्योंकि भारत ऐसा देश है जहां पर अर्थव्यवस्था, राजनीति, मीडिया, संस्कृति और अन्य क्षेत्रों पर हिंदू ही हावी हैं इसलिए ऐसा हो रहा है? उत्तर में वे महात्मा के जीवन, विचार और उनके बाद की स्थितियों वाले भारत को खंगालते हैं.
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आज की किताबः '1947 के बाद भारत'
मूल किताब: India After 1947: Reflection & Recollections
लेखक: राजमोहन गांधी
हिंदी अनुवाद: अरुण कुमार त्रिपाठी
भाषा: हिंदी
विधा: इतिहास
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
पृष्ठ संख्या: 107
मूल्य: 395 रुपये
साहित्य तक पर 'बुक कैफे' के 'एक दिन एक किताब' में वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश पाण्डेय से सुनिए उपरोक्त पुस्तक की चर्चा.