ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मशरिक़ में हो कि मग़रिब में
अम्न-ए-आलम का ख़ून है आख़िर
बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूह-ए-तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें कि औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है... इज़राइल-गाज़ा युद्ध पर साहिर लुधियानवी की ये नज़्म क्या कहती है? साहिर की पुण्यतिथि पर जुनैद क़ादरी से सुनें ये शानदार नज़्म सिर्फ़ साहित्य तक पर.