शब्द जहां ठिठक जाते हैं, आंखें धुंधला जाती हैं, इतिहास वहां से चलना शुरू करता है. इसलिए शब्दों को बार-बार इतिहास के पीछे दौड़ना पड़ता है जैसे तेजी से भागती गाड़ी के पीछे दौड़ते हैं सूखे पत्ते व इस्तेमाल कर, व्यर्थ मान फेंके दिए गए कागज! दरअसल इतिहास मुर्दा दिनों-तारीखों की कब्रगाह नहीं होता, वह जिंदा दस्तावेज होता है. वर्तमान से उसका गर्भ-नाल का रिश्ता होता है. इसलिए उसे बार-बार खोलने, उसके भीतर झांकने तथा उसे आज के संदर्भ में समझने की जरूरत बनी रहती है. जो अपने इतिहास से ऐसा जीवंत रिश्ता नहीं रखते वे मुल्क व सभ्यताएं जल्दी ही इतिहास बन जाते हैं. बसंत हेतमसरिया की यह किताब इतिहास के साथ ऐसा ही संवाद बनाने की कोशिश है. यह ज्यादा ही जरूरी किताब इसलिए बन जाती है कि यह कांग्रेस के, 1940 के रामगढ़ अधिवेशन का पन्ना खोलती है. इन पन्नों पर महात्मा गांधी भी हैं, सुभाषचंद्र बोस भी हैं, तब की कांग्रेस के दूसरे सभी दिग्गज भी हैं. मतलब इतिहास के ऐसे निर्माता यहां मौजूद हैं जिन्हें देखना-समझना उस वक्त को भी और आज के दौर को भी समझने के लिए जरूरी है.’’
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आज की किताबः '1940: विश्वयुद्ध और बढ़ते अलगाव के साए में स्वतंत्रता आंदोलन'
लेखक: बसन्त हेतमसरिया
भाषा: हिंदी
विधा: इतिहास
प्रकाशक: साहित्य सुरभि
पृष्ठ संख्या: 232
मूल्य: 450 रुपये
साहित्य तक पर 'बुक कैफे' के 'एक दिन एक किताब' में वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश पाण्डेय से सुनिए इस पुस्तक की चर्चा.