दुख, पीड़ा और 'कलंक' क्यों सिर्फ़ स्त्रियों के हिस्से? Tarabai Shinde | Shruti Agarwal |औरतनामा- 27 | Tak Live Video

दुख, पीड़ा और 'कलंक' क्यों सिर्फ़ स्त्रियों के हिस्से? Tarabai Shinde | Shruti Agarwal |औरतनामा- 27

‘तुम तो पहली की मृत्यु के पश्चात दसवें ही दिन दूसरी को ब्याह कर लाते हो, बताओ भी कि कौन से ईश्वर ने तुम्हें ऐसी सलाह दी है? जैसी स्त्री वैसा ही पुरुष! तुम में ऐसे कौन से गुण विद्यमान हैं, तुम कौन ऐसे शूर और जाबांज हो कि जिसकी वजह से परम पिता ने तुम्हें ऐसी स्वतंत्रता दी है?’ अपने नुकीले सवालों से पितृसत्तात्मक सोच पर चोट करने वालीं ताराबाई शिंदे ने बेआवाज़ सी दिखने वाली भारतीय स्त्रियों के बोल को पहले स्वर दिए. सामाजिक माहौल में स्त्री की स्थिति और प्रचलित मान्यताओं पर प्रश्न चिन्ह लगाती हुई, साल 1882 में मराठी में ताराबाई शिंदे ने ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ लिखी थी. दुनिया भर की स्त्री जाति की वास्तविक स्थिति पर विचार विमर्श करने का आह्वाहन उन्होंने अपनी इस रचना में किया है. 1882 में लिखी गई इस पुस्तक की 500 प्रतियां छपी थीं लेकिन इसे प्रसिद्धी 1975 में मिली जब एसजी माल्शे द्वारा इसका पुनः प्रकाशन करवाया गया. ताराबाई शिंदे का जन्म 1950 में महाराष्ट्र में हुआ था. उनके पिता हरि शिंदे, ज्योतिबा फुले के ब्राह्मण विरोधी आंदोलन से जुड़े हुए थे. परिवार में सामाजिक जागरण का माहौल था. उस समय ताराबाई के निवास स्थल के आस-पास लड़कियों के लिए कोई अच्छा स्कूल नहीं था लेकिन उनके पिता ने उन्हें शिक्षित करने की हर संभव कोशिश की. ताराबाई ने मराठी के साथ-साथ अंग्रेजी और संस्कृत का भी अध्ययन किया. उस समय की सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार ताराबाई का भी बालविवाह हुआ था और वे निसंतान विधवा थीं. विधवा विवाह उस समय समाज में वर्जित थे और इन्हीं परिस्थितियों ने ताराबाई के अंदर स्त्रियों के साथ हो रहे भेदभाव के पर लिखने के लिए प्रेरित किया. स्त्री पुरुष तुलना में वे अपने नुकीले सवालों से पितृसत्ता को चोट पहुंचाती हैं. वे पूछती हैं, जिस प्रकार तुम्हें प्राण प्रिय है, क्या स्त्री को नहीं होंगे? स्त्री को भावनाहीन पत्थर क्यों समझा जाता है? पति की मृत्यु के बाद उसकी स्थिति बदतर हो जाती है, उसके केश काट दिए जाते हैं, संसार की सुंदर चीजों और सुख-सुविधा से उसे वंचित रखा जाता है, मंगल कार्यों में भाग नहीं लेने दिया जाता भले ही वह एक अबोध बालिका ही क्यों ना हो, ऐसा क्यों? है तो वह बाल विधवा ही? ताराबाई शिंदे ने अपनी किताब स्त्री-पुरुष तुलना में पहली बार महिलाओं के हक़ में आवाज़ उठाया. उनकी यह किताब भारतीय जनमानस में नारीवादी सोच का पहला विस्फोट थी, जिसने स्त्रियों को गुलाम मानसिकता से मुक्ति दिलाने की प्रेरणा दी.


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ये वे लेखिकाएं हैं, जिन्होंने न केवल लेखन जगत को प्रभावित किया, बल्कि अपने विचारों से समूची नारी जाति को एक दिशा दी. आज का युवा वर्ग कलम की इन वीरांगनाओं को जान सके और लड़कियां उनकी जीवनी, आजाद ख्याली के बारे में जान सकें, इसके लिए चर्चित अनुवादक, लेखिका, पत्रकार और समाजसेवी श्रुति अग्रवाल ने 'साहित्य तक' पर 'औरतनामा' के तहत यह साप्ताहिक कड़ी शुरू की है. आज इस कड़ी में श्रुति एक मज़बूत नारीवादी लेखिका 'ताराबाई शिंदे' के जीवन और लेखन की कहानी बता रही हैं. 'औरतनामा' देश और दुनिया की उन लेखिकाओं को समर्पित है, जिन्होंने अपनी लेखनी से न केवल इतिहास रचा बल्कि अपने जीवन से भी समाज और समय को दिशा दी.